क़ाश ऐसा होता,
मैं तेरे इस दर्द के समंदर का कुछ हिस्सा बाँट सकता
हाँ मुझको मालूम है इस दर्द की दवा नहीं कोई,
ऐसे ज़ख्मों को सुखा सके हवा नहीं कोई,
दास्ताँ दुनिया को कोई क्या सुनाये,
जो दास्ताँ वो ख़ुद भी सुन ना पाए
इन ज़ख्मों को मैं और रंग हरा नहीं दे सकता,
मैं तुझको ख़ुश रहने का भी मशवरा नहीं दे सकता
ख़ुदा करता तेरे हक़ में ख़ुदा से कुछ माँग सकता,
काश मैं तेरे इस दर्द के समंदर का कुछ हिस्सा बाँट सकता!
0 Comments